रोज मेरे हाँथ में होता है,
एक कोरा काग़ज़-
जिसपर बनाने की कोशिश करता हूँ,
मैं कोई आकृति.
जिसमे दिखूं मैं, मेरी सोच.
खीचता हूँ, ढेर सारी रेखाएं
कुछ सीधी, कुछ लंबी-
कुछ संवेदनाओं के मकड़जाल की तरह
उलझी हुई,
एक में गुत्थम-गुत्था-
रंग भी भरता हूँ,
हर तरह के-
हर एक प्रतीकों के
रंग सोच के रंग,मंथन के रंग,
झुझलाहट के रंग-
फ़िर अंत में देखता हूँ
ऐसी तस्वीर
जिसमें कुछ नहीं दिखता,
कुछ समझ में नहीं आता.
न उन आड़ी तिरछी रेखाओं का महत्व
न ही उनका मतलब,
रंग भी कुछ नहीं कह पाते
सुन्न हो जाते हैं, बिल्कुल निशब्द
एक सन्नाटा पसर जाता है
कुछ टूट जाता है अचानक
वक्त दहाडें मारते हुए गुजर जाता है
ट्रेन की तरह, धड धड धड
कुछ अनसुना रह जाता है-
एक निर्जन पुल की कराह की तरह
Friday, July 4, 2008
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1 comment:
वाह, अच््छी कविता !
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